॥श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथमोऽध्यायः॥

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॥श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथमोऽध्यायः॥ मेधा ऋषिक राजा सुरथ आओर समाधिक भगवतीक महिमा बतबैत मधु-कैटभक वधक प्रसंग सुनेनाई ॥विनियोगः॥ ...


॥श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथमोऽध्यायः॥

मेधा ऋषिक राजा सुरथ आओर समाधिक भगवतीक महिमा बतबैत मधु-कैटभक वधक प्रसंग सुनेनाई

॥विनियोगः॥

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,
नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,
ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

प्रथम चरित्रक ब्रह्मा ऋषि , महाकाली देवता , गायत्री छन्द , नन्दा शक्ति , रक्तदन्तिका बीज , अग्नि तत्व अओर ऋग्वेद स्वरूप अछि । श्री महाकाली देवताक प्रसन्नताक लेल प्रथम चरित्रके जपमे विनियोग कएल जायत अछि।

॥ध्यानम्॥

ॐ खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्‍तुं मधुं कैटभम्॥१॥


भगवान् विष्णुक सुतलाक बाद मधु आओर कैटभके मारएके लेल कमलजन्मा ब्रह्माजी जिनका स्तवन केलथि, ओही महाकाली देवीक हम सेवन करैत छी। ओ अपन दस हाथसभमे खड्ग , चक्र, गदा , बाण, धनुष , परिध , शूल , भुशुण्डि , मस्तक आओर शंख धारण करैत छथि । हुनका तीनगो नेत्र छन्हि । ओ समस्त अंगसभमे दिव्य आभूषणसभ सँ विभूषित छथि। हुनकर शरीरक कान्ति नीलमणिक समान अछि तथा ओ दस मुख आओर दस पैर सभ सँ युक्त छथि ।

ॐ नमश्चण्डिकायै*

"ॐ ऐं" मार्कण्डेय उवाच॥१॥

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥२॥

महामायानुभावेन यथा मन्वन्‍तराधिपः।स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥३॥


स्वारोचिषेऽन्‍तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥४॥


तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्।बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा॥५॥


तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥६॥


ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।आक्रान्‍तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥७॥


अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥


ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥९॥


स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।प्रशान्‍तश्‍वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥१०॥


तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।इतश्‍चेतश्‍च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥११॥


सोऽचिन्‍तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः*।मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत्॥१२॥


मद्‌भृत्यैस्तैरसद्‌वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥१३॥


मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥१४॥


अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।असम्यग्व्यशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥१५॥


संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥१६॥


तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्‍चागमनेऽत्र कः॥१७॥


सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥१८॥


प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥१९॥

ऊँ चण्डिकादेवीके नमस्कार छन्हि ।

मार्कण्डेयजी बजलाह- ॥१॥ 

सूर्यके पुत्र सावर्णि जे आठम मनु कहल जायत अछि , हुनकर उत्पत्तिक कथा विस्तारपूर्वक कहैत छी , सुनु ॥२॥ सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती महामायाक अनुग्रह सँ जाहि प्रकार मन्वन्तरक स्वामी भेलाह, वैह प्रसंग सुनबैत छी॥३॥ पूर्वकालक बात अछि, स्वारोचिष मन्वन्तरमे सुरथ नामक एकटा राजा छलाह , जे चैत्रवंशमे उत्पन्न भेल छलाह। हुनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार छलनि ॥४॥ ओ प्रजाक अपन औरस पुत्रसभक  भाँति धर्मपूर्वक पालन करैत छलाह; तैयो ओही समय कोलाविध्वंसी नामक क्षत्रिय हुनकर शत्रु भय गेलन्हि ॥५॥ राजा सुरथक दण्डनीति बड़ प्रबल छलन्हि । हुनका शत्रुसभक संग संग्राम भेलनि। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्यामे कम छलाह, तैयो राजा सुरथ युद्धमे हुनका सँ परास्त भय गेलाह ॥६॥ तखन ओ युद्ध भूमि सँ अपन नगर आपिस आयब गेलाह आओर मात्र अपन देशक राजा भय कय रह' लगलाह ( पूरा पृथ्वी सँ आब हुनकर अधिकार जायत रहल), मुदा ओतय सेहो ओ प्रबल शत्रुसभ ओहि समय महाभागराजा सुरथ पर आक्रमण कय देलक॥७॥ राजाक बल क्षीण भय गेल छल; अहिलेल हुनकर दुष्ट , बलवान् एवं दुरात्मा मंत्रीसभ ओतय हुनकर राजधानीमे सेहो राजकीय सेना आओर खजानाके हथिया लेलक ॥८॥ सुरथक प्रभुत्व नष्ट भय चुकल छल, अहिलेल ओ शिकार खेलएके बहाने घोड़ा पर सवार भय ओतय सँ असगरे एकटा बड़का जंगलमे चलि गेलाह ॥९॥ ओतय ओ विप्रवर मेधा मुनिक आश्रम देखलनि , जतय कतेको हिंसक जीव ( अपन स्वाभाविक हिंसावृति छोड़िकय ) परम शांतभाव सँ रहैत छलैह । मुनिक बहुत शिष्य ओहि वनक शोभा बढ़ा रहल छल ॥१०॥ ओतय गेलापर मुनि हुनका सत्कार केलथिन्ह आओर ओ ओहि मुनिश्रेष्ठके आश्रम पर एम्हर-ओम्हार विचरति किछ कालतक रहलाह॥११॥ फेर ममता सँ आकृष्टचित्त भयकय ओतय अहि प्रकार चिंता करए लगलाह – ‘पूर्वकालमे हमर पूर्वज सभ जेकर पालन केने छल, वैह नगर आइ हमरा सँ रहित अछि। पता नहि , हमर दुराचारी भृत्यगण ओकर धर्मपूर्वक रक्षा करैत अछि अथवा नहि । जे सदखनि मदक वर्षा करनिहार आओर शूरवीर छल , ओ हमर प्रधान हाथी आब शत्रुसभक अधीन भय नहि जानि कोन भोगक भोगि रहल होयत ? जे लोकिन हमर कृपा, धन आओर भोजन लेल सदखनि हमरा पाछू पाछू चलैत छल, ओ निश्चय आब दोसर राजा सभक अनुसरण करैत होयत । ओहि अपव्ययी लोग सभक द्वारा हरदम खर्च होति रहबाक कारण अत्यन्त कष्ट सँ जमा कएल गेल हमरा ओ खजाना खाली भय जायत। ’ इ तथा आओर ओ कतेक बात सभ राजा सुरथ निरंतर सोचैत रहैत छलाह । एक दिन ओ ओतय विप्रवर मेधाके आश्रमक निकट एकटा वैश्यके देखलथि आओर हुनका सँ पुछलथि– ‘भाई ! तू के छह? एतय तोहर एबाक की कारण छ ? तू किएक शोकग्रस्त आओर अनमन जका दिखाई द रहल छ ?’ राजा सुरथक इ प्रेमपूर्वक कहल गेल वचन सुनिकय वैश्य  विनीतभाव सँ हुनका प्रणाम करैत कहलक - ॥१२ - १९॥ 

वैश्‍य उवाच॥२०॥

समाधिर्नाम वैश्‍योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥२१॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्‍च धनलोभादसाधुभिः।विहीनश्‍च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥


वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥२३॥


प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥२४॥


कथं ते किं नु सद्‌वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥२५॥


 वैश्य बजलाह- ॥२०॥

 राजन्! हम धनिक सभक कुलमे उत्पन्न एक वैश्य छी । हमर नाम समाधि अछि ॥२१॥ हमर दुष्ट स्त्री-पुत्र सभ धनक लोभ सँ हमरा घर सँ बाहर निकालि देलक अछि । हम अहि समय धन, स्त्री आओर पुत्र सभ सँ वंचित छी ।  हमर विश्वसनीय बंधु सभ हमरे धन लय कय हमरे दूर कय देलक अछि , अहिलेल दु:खी भय कय हम वनमे चलि एलौ । एतय रहि कय हम अहि बातके नहि जानैत छी कि हमर पुत्र सभक, स्त्रीक आओर स्वजन सभक कुशल अछि अथवा नहि।  अहि समय घरमे ओ कुशल सँ रहैत अछि अथवा हुनका सभके कोनो कष्ट छन्हि ?॥२२-२४॥ ओ हमर पुत्र केना अछि ? की ओ सदाचारी अछि अथवा दुराचारी भय गेल अछि ? ॥२५॥ 

राजोवाच॥२६॥

यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥२७॥

तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥२८॥



राजा पुछ्लथि - ॥२६॥ 

जे लोभी स्त्री-पुत्र आदि धनक कारण तोरा घर सँ निकालि देलकऽ, हुनका प्रति चित्तमे एतेक स्नेहक बन्धन किएक ॥२७-२८॥


वैश्य उवाच॥२९॥

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्‌गतं वचः॥३०॥

किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः।यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥३१॥


पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः।किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥३२॥


यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।तेषां कृते मे निःश्‍वासो दौर्मनस्यं च जायते॥३३॥


करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥३४॥

वैश्य बजलाह - ॥२९॥ 

अहाँ हमर विषयमे जेहन बात कहैत छी , ओ सब ठीक अछि॥३०॥ मुदा की करू , हमर मन निष्ठुरता नहि धारण करैछ । जेसभ धनक लोभमे आबि पिताक प्रति स्नेह , पतिक प्रति प्रेम तथा आत्मीयजनक प्रति अनुरागके तिलांजलि दय हमरा घर सँ निकालि देलक अछि , हुनके प्रति हमर हृदयमे एतेक स्नेह अछि । महामते ! गुणहीन बन्धुसभके प्रति सेहो जे हमर चित्त अहि प्रकार प्रेममग्न भय रहल अछि , इ की छै – अहि बातके हम बुझलाक बादो नहि बुझि पबैत छी । हुनकालेल हम लम्बा साँस लय रहल छी आओर हमर हृदय अत्यन्त दु:खित भय रहल अछि ॥३१-३३॥ हुनकासभमे प्रेमक सर्वथा अभाव अछि; तैयो हुनका प्रति जे हमर मन निष्ठुर नहि भय रहल अछि  , अहिके लेल की करू ?॥३४॥

मार्कण्डेय उवाच॥३५॥

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥३६॥

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम्॥३७॥


उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्‍यपार्थिवौ॥३८॥

मार्कण्डेयजी कहैत छथि - ॥३५॥ 

ब्रह्मन्! तदनन्तर राजासभमे श्रेष्ठ सुरथ आओर ओ समाधि नामक वैश्य दुनु संग-संग मेधा मुनिक सेवामे उपस्थित भेलाह आओर हुनका संग यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करैत बैसलाह। तत्पश्चात् वैश्य आओर राजा किछ वार्तालाप आरम्भ केलथि ॥३६ - ३८॥

राजोवाच॥३९॥

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥४०॥

दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥४१॥


जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।अयं च निकृतः* पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥४२॥


स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥४३॥


दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।तत्किमेतन्महाभाग* यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥४४॥


ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥४५॥

राजा  कहलथि - ॥३९॥ 

भगवन् ! हम अहाँ सँ एकटा बात पूछय चाहैत छी, ओहीके बताऊ ॥४०॥ हमर चित्त अपन अधीन नहि होवाक कारण ओ बात हमर मनके बहुत दु:ख दैत अछि । जे राज्य हमर हाथ सँ चलि गेल अछि , ओहिमे आओर ओकर सम्पूर्ण अंगसभमे हमर ममता बनल अछि॥४१॥ मुनिश्रेष्ठ ! इ बुझितो जे कि ओ हमर नहि अछि , अज्ञानीक भाँति हमरा ओहिके लेल दु:ख होयत अछि; इ की छै ? एम्हर इ वैश्य सेहो घर सँ अपमानित भय कय आयल अछि । एकर पुत्र ,स्त्री आओर भृत्यसभ एकरा छोड़ि देलक अछि॥४२॥ स्वजनसभ सेहो एकर परित्याग कय देने अछि , तैयो इ हुनका प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह राखैत अछि । अहि प्रकार इ तथा हम दुनु बहुत दु:खी छी ॥४३॥ जाहिमे प्रत्यक्ष दोष देखल गेल अछि, ओहि विषयके लेल सेहो हमर मनमे ममताजनित आकर्षण पैदा भय रहल अछि । महाभाग ! हम दुनु बुझनुक छी ; तैयो हमरामे जे मोह पैदा भेल अछि, इ की छाई ? विवेकशून्य पुरुषक भाँति हमरामे आओर एकरामे सेहो इ मूढ़ता प्रत्यक्ष देखा रहल अछि ॥४४- ४५॥

ऋषिरुवाच॥४६॥

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥४७॥

विषयश्च* महाभागयाति* चैवं पृथक् पृथक्।दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥४८॥


केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न हि केवलम्॥४९॥


यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥५०॥


मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥५१॥

कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥५२॥


लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेता*न् किं न पश्‍यसि।तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥५३॥


महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा*।तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥५४॥


महामाया हरेश्‍चैषा* तया सम्मोह्यते जगत्।ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥५५॥


बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।तया विसृज्यते विश्‍वं जगदेतच्चराचरम्॥५६॥


सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥५७॥


संसारबन्धहेतुश्‍च सैव सर्वेश्‍वरेश्‍वरी॥५८॥



ऋषि बजलाह- ॥४६॥ 

महाभाग ! विषयमार्गक ज्ञान सब जीवसभके छै ॥४७॥ अहि प्रकार विषय सेहो सबके लेल अलग-अलग होयत अछि, किछ प्राणी दिनमे नहि देखैत अछि आओर दोसर रातिमे नहि देखैत अछि॥४८॥ तथा किछ जीव एहेन अछि, जे दिन आओर रातिमे सेहो बराबरए देखैत अछि । इ ठीक छै कि मनुष्य बुधियार होयत अछि; मुदा मात्र वैह एहेन नहि होयत अछि॥४९॥ पशु, पक्षी आओर मृग आदि सभ प्राणी बुधियार होयत अछि । मनुष्य सभक समझ सेहो ओहने होयत अछि, जेना ओहि मृग आओर पक्षी सभक होयत अछि ॥५०॥ तथा जेहन मनुष्य सभक होयत अछि, ओहने ओही मृग-पक्षी आदिक सेहो होयत छै । इ तथा अन्य बात सभ सेहो प्राय: दुनुमे एके रंग होयत अछि । समझ भेलाक बादो अहि पक्षीसभके तँ देखू, इ स्वयं भूख सँ पीड़ित रहितो मोहवश बच्चासभके चोंचमे कतेक चाव सँ अन्नक दाना दय रहल छै। नरश्रेष्ठ! की तू नहि देखैत छी की इ मनुष्य बुधियार होइतो लोभवश अपन कएल गेल उपकारक बदला पाबय लेल पुत्रसभक अभिलाषा करैत अछि ? यद्यपि हुनका सभमें समझक कमी नहि अछि,तथापि ओ संसारक स्थिति (जन्म-मरणक परम्परा ) बना कय रखनिहारि भगवती महामायाके प्रभावद्वारा ममतामय भँवरसँ युक्त मोहके गर्तमे गिरायल गेल अछि । अहिलेल अहिमे आश्चर्य नहि करबाक चाही ।जगदीश्वर भगवान विष्णुक योगनिद्रारूपा जे भगवती महामाया अछि, हुनके सँ इ जगत मोहित भय रहल अछि । ओ भगवती महामायादेवी ज्ञानीसभके सेहो चित्तके बलपूर्वक खींचकय मोहमे राखि दैत छथि । वैह अहि सम्पूर्ण चराचर जगतक सृष्टि करैतछथि तथा वैह प्रसन्न भेलापर मनुष्यसभके मुक्तिक लेल वरदान दैत छथि । वैह परा विद्या संसार-बन्धन आओर मोक्षक हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरसभके सेहो अधीश्वरी छथि ॥५१- ५८॥

राजोवाच॥५९॥

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥६०॥

ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च* किं द्विज।यत्प्रभावा* च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥६१॥


तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥६२॥

राजा पूछलथि- ॥५९॥ 

भगवन्! जिनका आप महामाया कहैत छी, ओ देवी के छथि ? ब्रह्मन्! हुनकर आविर्भाव केना भेल छन्हि ? तथा हुनकर चरित्र की-की अछि ? ब्रह्मवेत्तासभमे श्रेष्ठ महर्षे! ओही देवीक जेहन प्रभाव छन्हि, जेहन स्वरूप छन्हि आओर जाहि प्रकार प्रादुर्भाव भेल होन्हि, ओ सभ हम अहाँक मुहँ सँ सुनय चाहैत छी॥६०- ६२॥

ऋषिरुवाच॥६३॥

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥६४॥

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥६५॥


उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥६६॥


आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्‍ते भगवान् प्रभुः।तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥६७॥


विष्णुकर्णमलोद्भूतो हन्‍तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥६८॥


दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥६९॥


विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्*।विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥७०॥


निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥७१॥



ऋषि बजलाह- ॥६३॥ 

राजन्! वास्तवमे तँ ओ देवी नित्यस्वरूपा छइथे । सम्पूर्ण जगत् हुनके रूप छन्हि तथा वैह समस्त विश्वके व्याप्त कयने छथि, तथापि हुनकर प्राकट्य अनेको प्रकारसँ भेल अछि । ओ हमरा सँ सुनु । यद्यपि ओ नित्य आओर अजन्मा छथि, तथापि जखन देवतासभक कार्य सिद्ध करयके लेल प्रकट होयत छथि , ओहि समय लोकमे उत्पन्न भेल कहाबति छथि । कल्पक अन्तमे जखन सम्पूर्ण जगत् एकार्णवमे निमग्न भय रहल छल आओर सभक प्रभु भगवान् विष्णु शेषनागक शय्या बिछाकय योगनिद्राक आश्रय लय सुतल छलाह, ओहि समय हुनकर कानसभक मैल सँ दुटा भयंकर असुर उत्पन्न भेल, जे मधु आओर कैटभके नाम सँ विख्यात भेल । ओ दुनु ब्रह्माजीक वध करएके लेल तैयार भय गेल । भगवान् विष्णुक नाभिकमलमे विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी जखन ओहि दुनु भयानक असुरसभके अपन लग आयल आओर भगवान् के सुतल देख, तखन एकाग्रचित भय कय ओ भगवान् विष्णुके जगेबाक लेल हुनका नेत्रसभमे निवास करएबाली योगनिद्राक स्तवन आरम्भ केलथि । जे अहि विश्वक अधीश्वरी, जगत् के धारण करएवाली, संसारक पालन आओर संहार करएवाली तथा तेज:स्वरूप भगवान् विष्णुक अनुपम शक्ति छथि, ओहि भगवती निद्रादेवीक भगवान् ब्रह्मा स्तुति करए लगलाह॥६४ - ७१॥

ब्रह्मोवाच॥७२॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधां त्वं हि वषट्कारःस्वरात्मिका॥७३॥

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥७४॥


त्वमेव संध्या* सावित्री त्वं देवि जननी परा।त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥७५॥


त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्‍ते च सर्वदा।विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥७६॥


तथा संहृतिरूपान्‍ते जगतोऽस्य जगन्मये।महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥७७॥


महामोहा च भवती महादेवी महासुरी*।प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥७८॥


कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्‍च दारुणा।त्वं श्रीस्त्वमीश्‍वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥७९॥


लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च।खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥८०॥


शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥८१॥


परापराणां परमा त्वमेव परमेश्‍वरी।यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥८२॥


तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा*।यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति* यो जगत्॥८३॥


सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्‍वरः।विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥८४॥


कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥८५॥


मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥८६॥


बोधश्‍च क्रियतामस्य हन्‍तुमेतौ महासुरौ॥८७॥

ब्रह्माजीने कहलाह- ॥७२॥ 

देवि! तुही स्वाहा, तुही स्वधा आओर तुहे वषट्कार छै । स्वर सेहो तोरे स्वरूप छौ । तुही जीवनदायिनी सुधा छै । नित्य अक्षर प्रणवमे अकार, उकार, मकार - अहि तीन मात्रासभक रूपमे तुही स्थित छै तथा अहि तीन मात्रासभके अतिरिक्त जे बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा छै, जकर विशेषरूप सँ उच्चारण नहि कएल जा सकैछ , ओहो तुही छै । देवि! तुही संध्या , सावित्री तथा परम जननी छै । देवि! तुही अहि विश्व-ब्रह्माण्डके धारण केनहारि छै । तोरे सँ अहि जगत् के सृष्टि होयत छै । तोरे सँ एकर पालन होयत छै आओर सदा तुही कल्पके अन्तमे सभके अपन ग्रास बना लैत छिही । जगन्मयी देवि! अहि जगत् के उत्पत्तिक समय तुही सृष्टिरूपा छै, पालन-कालमे स्थितिरूपा छै तथा कल्पान्तके समय संहाररूप धारण करएवाली छै । तुहे महाविद्या,महामाया, महामेधा,महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी आओर महासुरी छै । तुहे तिनु गुणसभके उत्पन्न करएवाली सभक प्रकृति छै ।भयंकर कालरात्रि, महारात्रि आओर मोहरात्रि सेहो तुहे छै । तुहे श्री, तुहे ईश्वरी, तुहे ह्री आओर तुहे बोधस्वरूपा बुद्धि छै लज्जा, पुष्टि,तुष्टि, शान्ति आओर क्षमा सेहो तुहे छै । तू खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख आओर धनुष धारण करएवाली छै । बाण,भुशुण्डी आओर परिघ- इहो सेहो तोरेअस्त्र छौ । तू सौम्य आओर सौम्यतर छै- एतबा नहि जतेको सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ छै, ओही सभक अपेक्षा तु अत्यधिक सुन्दरी छै । पर आओर अपर- सभ सँ परे रहएवाली परमेश्वरी, तुही छै । सर्वस्वरूपे देवि ! जतय कोनो ठाम सत्- असत् रूप जे किछ वस्तु सभ छै आओर ओही सभक जे शक्ति छै, ओ तुहे छै । एहेन अवस्थामे तोहर स्तुति की भय सकैछ? जे अहि जगत् के सृष्टि, पालन आओर संहार करत छै, ओही भगवान् के सेहो जखन तू निद्राके अधीन कय देलही,तखन तोहर स्तुति करएमे एतयके समर्थ भय सकैछ? हमरा भगवान् शंकरके तथा भगवान् विष्णुके सेहो तुहे शरीर धारण करेने छै ; अत: तोहर स्तुति करएके शक्ति केकरामे छै? देवि! तू तँ अपन अहि उदार प्रभाव सभ सँए प्रशंसित छै। इ जे दुनु दुर्धर्ष असुर मधु आओर कैटभ अछि, एकरा मोहमे फेक दे आओर जगदीश्वर भगवान् विष्णुके शीघ्र जगा दे। संगे हिनका भीतर अहि दुनु महान् असुर सभके मारि देबाक बुद्धि उत्पन्न कय दे ॥७३ - ८७॥

ऋषिरुवाच॥८८॥

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥८९॥

विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥९०॥


निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः॥९१॥


एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।मधुकैटभो दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥९२॥


क्रोधरक्‍तेक्षणावत्तुं* ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥९३॥


पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः।तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥९४॥


उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम्॥९५॥

ऋषि कहैत छथि- ॥८८॥ 

राजन्! जखन ब्रह्माजी ओतय मधु आओर कैटभके मारएके उद्देश्य सँ भगवान् विष्णुके जगेबाक लेल तमोगुणक अधिष्ठात्री देवी योगनिद्राक अहि प्रकार स्तुति केलथि , तखन ओ भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, ह्रदय आओर वक्ष:स्थल सँ निकलिकय अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीक दृष्टिके समक्ष ठाढ़ भय गेलाह। योगनिद्रा सँ मुक्त भेला पर परजगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन ओहि एकार्णवके जलमे शेषनागक शय्या सँ जागि उठल । फेर ओ ओहि दुनु असुरसभके देखला । ओ दुरात्मा मधु आओर कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी छल अओर क्रोध सँ लाल आँखि कय ब्रह्माजीके खा जेबाक लेल उद्योग कय रहल छल । तखन भगवान् श्रीहरि उठिकय ओही दुनुक संग पाँच हजार वर्षतक मात्र बाहुयुद्ध केलथि । ओ दुनु सेहो अत्यन्त बलक कारण उन्मत्त भय रहल छल । एम्हर महामाया सेहो मोहमे राखि देने छलाह अहि लेल ओ भगवन विष्णु सँ कहए लागल हम तोहर वीरता सँ संतुष्ट छी तू हमरा सभ सँ कोनो वरदान मांगि ले ॥८९ - ९५॥ 

श्रीभगवानुवाच॥९६॥
भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥९७॥

किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम*॥९८॥



 श्रीभगवान् बजलाह- ॥९६॥ 

जँ तू दुनु हमरा पर प्रशन्न छै तँ आब हमरा हाथ सँ मारल जो। बस, एतबा-हम वर माँगैत छियो । एतय दोसर कोनो वर सँ की मतलब ॥९७ - ९८॥ 

ऋषिरुवाच॥९९॥

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥१००॥

विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः*।आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता॥१०१॥

ऋषिरुवाच॥१०२॥

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता।कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने जघने शिरसी तयोः॥१०३॥

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु वदामि ते॥ ऐं ॐ॥१०४॥

ऋषि कहैत छथि - ॥९९॥ 

अहि प्रकार धोखामे आबि गेला पर जखन ओ सम्पूर्ण जगत् मे पानिए पानि देखलक, तखन कमलनयन भगवान् सँ कहलक- ‘जतय पृथ्वी जलमे डूबल नहि हुए - जतय सुखल स्थान हुए, ओतहि हमर वध करए’ ॥ ऋषि कहैत छथि- ॥१०२॥ तखन ‘ तथास्तु ’ कहिकय शंख, चक्र आओर गदा धारण करएवाली भगवान् ओ दुनुके मस्तक अपन जाँघपर राखि कय चक्र सँ काटि देलथि । अहि प्रकार इ देवी महामाया ब्रह्माजीक सतुति कयला पर स्वयं प्रकट भेल छलीह । आब पुन: तोरा सँ हुनकर प्रभावक वर्णन करैत छी, सुनु ॥१०३ - १०४॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
उवाच १४, अर्धश्लोकाः २४, श्लोकाः ६६,
एवमादितः॥१०४॥

टिपण्णी सभ

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Mithila Times: ॥श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथमोऽध्यायः॥
॥श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथमोऽध्यायः॥
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